Wednesday, March 26, 2008

उद्वेग! - श्रीकान्त शास्त्री

अपनी बीती क्या कहूँ तुझे,
     वह करुण कथा 'उडते पंछी'।
इस रुद्ध कण्ठ से करुण गान,
     कैसे गाऊँ 'उडते पंछी'।।



आया था मैं इस नगरी में,
     जीवन का नव उल्लास लिए।
यौवन का विमल विकास लिए,
     औ वैभव, विपुल विलास लिए।।



पर कहाँ छिपा वह कला-लास,
     अपना अनुपम आभास लिए।
वह जोर, जवानी, जर, जाया,
     सब कहाँ गई सुख साँस लिए।।



है याद नहीं, मैं गया भूल,
     क्या बतालाऊँ 'उडते पंछी'।
इस रुद्र-कण्ठ से तरल गान,
     कैसे गाऊँ 'उडते पंछी'।।



चल ले चल इस नल-जगती से,
     हो जहाँ शान्ति का शुभ्र धाम।
हो सत्य अहिंसा का सुराज्य,
     जावें न जहाँ कमनीय काम।।



मानवता का हो जहाँ राज,
     रह सकें साथ भीलनी-राम।
जिस जगह न बतलाते होवें,
     नर के महत्व को चाम, दाम।।



विचरूँ में सुख से सात्विक बन,
     बन, बन, उपवन 'उडते पंछी'।
इस रुद्र कण्ठ से करुण गान,
     कैसे गाऊँ 'उडते पंछी'।।



 - श्रीकान्त शास्त्री
(अखण्ड ज्योति, नवम्बर १९४०)