Saturday, September 7, 2019

प्रयाण गीत - जयशंकर प्रसाद

Image result for jaishankar prasadहिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में, सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो

Thursday, January 26, 2017

फूल खिला दे शाखों पर - शक़ील आज़मी

शक़ील आज़मी 

फूल खिला दे शाखों पर, पेड़ो को फल दे मालिक
फूल खिला दे शाखों पर, पेड़ो को फल दे मालिक
धरती जितनी प्यासी हैं उतना तो जल दे मालिक

वक़्त बड़ा दुःख दायक है, पापी हैं संसार बहुत
वक़्त बड़ा दुःख दायक है, पापी हैं संसार बहुत
निर्धन को धनवान बना, दुर्बल को बल दे मालिक

कोहरा कोहरा सर्दी है, कांप रहा है पूरा गाँव
कोहरा कोहरा सर्दी है, कांप रहा है पूरा गाँव
दिन को तपता सूरज दे, रात को कम्बल दे मालिक

बैलो को इक गठरी घास, इन्सानों को दो रोटी
बैलो को इक गठरी घास, इन्सानों को दो रोटी
खेतो को भर दे गेहू से, कंधो को हल दे मालिक

हाथ सभी के काले हैं, नजरे सब की पीली हैं
हाथ सभी के काले हैं, नजरे सब की पीली हैं
सीना ढांप दुपट्टे से, सर को आँचल दे मालिक

Friday, August 26, 2011

लो मशालों को जगा डाला किसी ने - प्रसून जोशी


प्रसून जोशी
लो मशालों को जगा डाला किसी ने
भोले थे, अब कर दिया भाला किसी ने

है शहर ये कोयलों का, ये मगर न भूल जाना
लाल शोले भी इसी बस्ती में रहते हैं युगों से
रास्तों में धूल है कीचड़ है, पर ये याद रखना
ये जमीं धुलती रही संकल्प वाले आंसुओं से
मेरे आँगन को है धो डाला किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने
भोले थे, अब कर दिया भाला किसी ने

आग बेवजह कभी घर से निकलती ही नहीं है
टोलियाँ जत्थे बना कर चीख यूं चलती नहीं हैं
रात को भी देखने दो आज तुम सूरज के जलवे 
जब तपेगी ईंट  तभी होश में आयेंगे तलवे 
तोड़ डाला मौन का ताला किसी ने
लो मशालों को जगा डाला किसी ने
भोले थे, अब कर दिया भाला किसी ने

 - प्रसून जोशी

इतना क्यूँ सोते हैं हम? - प्रसून जोशी

प्रसून जोशी
इतना क्यूँ सोते हैं हम
इतना क्यूँ सोते हैं हम
इतना लम्बा इतना गहरा बेसुध क्यूँ सोते हैं हम

दबे पाँव काली रातें आती जाती हैं
दबे पाँव क्या कभी बेधड़क हो जाती हैं
और बस करवट लेकर सब खोते हैं हम
इतना क्यूँ सोते हैं हम

नींद हैं या फिर नशा है कोई
धीरे धीरे जिसकी आदत पड़ जाती हैं
झूठ की बारिश में सच की खामोश बांसुरी
झूठ की बारिश में सच की खामोश बांसुरी
एक झोंके की राह देखती के सड़ जाती हे
बाद में क्यूँ रोते हैं हम
इतना क्यूँ सोते हैं हम

खेत हमारा बीज हमारे
हेरत क्या अब फसल खड़ी हैं
खेत हमारा बीज हमारे
हेरत क्या अब फसल खड़ी हैं
काटनी होगी छांटनी होगी
आज चुनोती बहुत बड़ी हैं
कांटे क्यूँ बोते हैं हम
इतना क्यूँ सोते हैं हम

सबने खेला और सब हारे
सबने खेला और सब हारे
बड़ा अनोखा अजब खेल हैं
इंजिन काला डब्बे काले
बड़ी पुरानी धीट रेल हैं
इस रेल में क्यूँ होते हैं हम
इतना क्यूँ सोते हैं हम

लोरी नहीं तमाचा दे दो
लोरी नहीं तमाचा दे दो
एक छोटीसी आशा दे दो
वर्ना फिर से सो जायेंगे
वर्ना फिर से सो जायेंगे
सपनो में फिर खो जायेंगे
चलो पाप धोंते हे हम
इतना क्यूँ सोते हैं हम
इतना लम्बा इतना गहरा बेसुध क्यूँ सोते हैं हम

- प्रसून जोशी

Monday, April 18, 2011

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ - साहिर लुधियानवी

साहिर लुधियानवी
मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

मुझ से पहले कितने शायर आए और आ कर चले गए,
कुछ आहें भर कर लौट गए, कुछ नग़में गा कर चले गए ।
वे भी एक पल का क़िस्सा थे, मैं भी एक पल का क़िस्सा हूँ,
कल तुम से जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूँ ॥

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

कल और आएंगे नग़मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले,
मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले ।
कल कोई मुझ को याद करे, क्यों कोई मुझ को याद करे
मसरुफ़ ज़माना मेरे लिए, क्यों वक़्त अपना बरबाद करे ॥

मैं पल-दो-पल का शायर हूँ, पल-दो-पल मेरी कहानी है ।
पल-दो-पल मेरी हस्ती है, पल-दो-पल मेरी जवानी है ॥

 - साहिर लुधियानवी

Sunday, April 17, 2011

मातृभूमि - मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त
नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥

करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

जिसके रज में लोट-लोट कर बड़े हुये हैं।
घुटनों के बल सरक-सरक कर खड़े हुये हैं॥
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये।
जिसके कारण धूल भरे हीरे कहलाये॥

हम खेले-कूदे हर्षयुत, जिसकी प्यारी गोद में।
हे मातृभूमि! तुझको निरख, मग्न क्यों न हों मोद में?

पा कर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा।
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह, तुझी से बनी हुई है।
बस तेरे ही सुरस-सार से सनी हुई है॥

फिर अन्त समय तू ही इसे अचल देख अपनायेगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तुझमें ही मिल जायेगी॥

निर्मल तेरा नीर अमृत के से उत्तम है।
शीतल मंद सुगंध पवन हर लेता श्रम है॥
षट्ऋतुओं का विविध दृश्ययुत अद्भुत क्रम है।
हरियाली का फर्श नहीं मखमल से कम है॥

शुचि-सुधा सींचता रात में, तुझ पर चन्द्रप्रकाश है।
हे मातृभूमि! दिन में तरणि, करता तम का नाश है॥

सुरभित, सुन्दर, सुखद, सुमन तुझ पर खिलते हैं।
भाँति-भाँति के सरस, सुधोपम फल मिलते है॥
औषधियाँ हैं प्राप्त एक से एक निराली।
खानें शोभित कहीं धातु वर रत्नों वाली॥

जो आवश्यक होते हमें, मिलते सभी पदार्थ हैं।
हे मातृभूमि! वसुधा, धरा, तेरे नाम यथार्थ हैं॥

क्षमामयी, तू दयामयी है, क्षेममयी है।
सुधामयी, वात्सल्यमयी, तू प्रेममयी है॥
विभवशालिनी, विश्वपालिनी, दुःखहर्त्री है।
भय निवारिणी, शान्तिकारिणी, सुखकर्त्री है॥

हे शरणदायिनी देवि, तू करती सब का त्राण है।
हे मातृभूमि! सन्तान हम, तू जननी, तू प्राण है॥

जिस पृथ्वी में मिले हमारे पूर्वज प्यारे।
उससे हे भगवान! कभी हम रहें न न्यारे॥
लोट-लोट कर वहीं हृदय को शान्त करेंगे।
उसमें मिलते समय मृत्यु से नहीं डरेंगे॥

उस मातृभूमि की धूल में, जब पूरे सन जायेंगे।
होकर भव-बन्धन- मुक्त हम, आत्म रूप बन जायेंगे॥

 - मैथिलीशरण गुप्त

जो बीत गई सो बात गई - हरिवंश राय 'बच्चन'

हरिवंश राय 'बच्चन'
जीवन में एक सितारा था
माना वह बेहद प्यारा था
वह डूब गया तो डूब गया
अंबर के आंगन को देखो
कितने इसके तारे टूटे
कितने इसके प्यारे छूटे
जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले
पर बोलो टूटे तारों पर
कब अंबर शोक मनाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में वह था एक कुसुम
थे उस पर नित्य निछावर तुम
वह सूख गया तो सूख गया
मधुबन की छाती को देखो
सूखी कितनी इसकी कलियाँ
मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ
जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं
पर बोलो सूखे फूलों पर
कब मधुबन शोर मचाता है
जो बीत गई सो बात गई

जीवन में मधु का प्याला था
तुमने तन मन दे डाला था
वह टूट गया तो टूट गया
मदिरालय का आंगन देखो
कितने प्याले हिल जाते हैं
गिर मिट्टी में मिल जाते हैं
जो गिरते हैं कब उठते हैं
पर बोलो टूटे प्यालों पर
कब मदिरालय पछताता है
जो बीत गई सो बात गई

मृदु मिट्टी के बने हुए हैं
मधु घट फूटा ही करते हैं
लघु जीवन ले कर आए हैं
प्याले टूटा ही करते हैं
फ़िर भी मदिरालय के अन्दर
मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं
जो मादकता के मारे हैं
वे मधु लूटा ही करते हैं
वह कच्चा पीने वाला है
जिसकी ममता घट प्यालों पर
जो सच्चे मधु से जला हुआ
कब रोता है चिल्लाता है
जो बीत गई सो बात गई

 - हरिवंश राय 'बच्चन'